मंदिर का जीवन में महत्व एवं उपयोगिता

मंदिर एक ऐसा शब्द है जिसको सुनते ही व्यक्ति की चेतना स्वतः किसी अज्ञात शक्ति की ओर नतमस्तक हो जाती है। मनुष्य को रचने वाली कोई पराशक्ति है जिसे हम देव कहते हैं और जिस स्थान पर देवता स्थायी रूप में एक मूर्ति के रूप में विराजित होते हैं या निवास करते हैं उस देवस्थान को देवालय अथवा मंदिर कहा जाता है।

देवताओं को भगवान ही कहा जाता है। मंदिर को हम सरल भाषा में मनुष्य जाति के कल्याणार्थ भगवान के निवास करने का एक पवित्र भवन कह सकते हैं।

भगवान शब्द का वास्तविक अर्थ पंचतत्व ही है।अगर हम भगवान शब्द का सन्धिविच्छेद करते है ।

भ+ग+व+अ+न=भगवान

“भ”से भूमि
“ग” से गगन
“व” से वायु
“अ”से अग्नि
“न “से नीर अर्थात जल

मेरी परिभाषा के अनुसार पंचमहाभूत ,पंचतत्वों का ब्रह्माण्ड में मूर्ति रूप ही भगवान होता है और एक परलौकिक शक्ति और ऊर्जा के रूप में धरा पर निवास करता है।हम उस वास्तु निवास स्थान को ही मंदिर कहते हैं।

जहाँ देवता निवास करते हैं
पाप का अपने हास करते हैं
त्रिशक्तियाँ करतीं समागम है
ब्रह्म ऊर्जा का होता संगम है
जहाँ ज्ञान के समुन्दर बहते हैं।
उस स्थान को मन्दिर कहते हैं।।

मंदिर का जीवन में महत्व एवं उपयोगिता
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ये पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण, चुम्बकीय एवम सौर शक्ति से बँधी हुई है और ये समस्त शक्तियाँ समग्र रूप से एक दैवीय शक्ति का निर्माण करती हैं जिसे परलौकिक या बाह्य शक्ति भी कह सकते हैं।
मन्दिर बाह्य शक्तियों का एक केंद्र ही होता है जो अपनी संरचना और वास्तु निर्माण के कारण प्रत्यक्ष रूप से देवकृपा पुंजों से युक्त होकर साक्षात ऊर्जा स्रोत्र बन जाता है।
मनुष्य भी पंचतत्वों का जीवित उदाहरण हैं और नवग्रहों तथा दस दिशाओं ,27 नक्षत्रों की गुरुत्वीय,चुम्बकीय और सौर शक्तियों के अधीन होकर ही एक पूर्वनिर्धारित कालखंड के अंतर्गत प्रारब्ध नियोजित कर्म करता रहता है और अपनी यथाशक्ति ,कर्म,भाग्य तथा प्रारब्ध के अनुसार कर्मफल पाता है।परन्तु भौतिक कामनाओं से पराजित होकर अपना तत्वीय सन्तुलन खो देता है तथा शारिरिक और मानसिक सामंजस्य को मिटा देता है जिससे मनुष्य को दुःख ,क्षोभ,पीड़ा,चिंता,लोभ,वासना,हीनता, दरिद्रता,रोग,वियोगआदि का अनुभव होने लगता है और उसकी अपनी आंतरिक शक्ति ऊर्जाओं का क्षय होने लगता है ।
इस आंतरिक ऊर्जा के क्षरण के कारण हम अवसादग्रस्त हो जातें हैं और एक शक्ति की आशा करने लगते हैं जो मन तन और मस्तिष्क को शान्ति प्रदान करे तथा जीवन को पुनः संयोजित करे।
अतः मंदिर में जाकर व्यक्ति अपनी आंतरिक ऊर्जा को दैवीय ऊर्जा से ध्यान,विनती, क्षमा याचना, प्रार्थना, वंदना, अनुरोध, मनोकामना द्वारा समन्वित करता है और चेतना जागृत करता है।
कभी कभी मनुष्य अपनी किसी गलती अथवा ऐसे अपराध को जो उसके अन्य कोई नहीं जानता और वो सामाजिक,परिवारिक,आर्थिक प्रतिष्ठा के कारण किसी से कह भी नहीं सकता और निरन्तर पश्चाताप एवं क्षोभ की अग्नि में जलता रहता है ।ऐसा मनुष्य मंदिर में जाकर देवताओं के समक्ष अपने किये अपराध की क्षमायाचना कर अपराधबोध से मुक्त हो जाता है।

कोई तो है जो सबको हवायें दे रहा है
कोई तो है जो जगको दुआयें दे रहा है
कोई तो है जो कर रहा ये सब मेहरबानी
कोई तो है जो दे रहा है हमें अन्न- पानी
कोई तो है असँख्य और अगणित युगों से
हमें दे रहा है नित रोशनी अपने घरों से।

कोई तो है जो बिन ही माँगे सबकी हमेशा
चाहतें पूर्ण करता और पूरी हर एक ईच्छा
कोई तो है जो हमें शब्द और आवाज़ देता
कोई तो है जो इन पंछियों को परवाज़ देता
कोई तो है जो बहुरंग अलग फूलों में भरता
कोई तो है जो दरख़्त हरा मरु में भी करता।

कोई तो है जो कर रहा है मन को काबू
कोई तो है जो रखता नज़र अपनी हर सूँ
अरे! कौन है वो आख़िर ऐसा कौन है वो
जो दे रहा है खुले हाथों से मुफ़्त सबको
क्यूँ न हम उसको पिता का ही नाम
गुरुदेव ब्रह्मा,विष्णु,शिव या राम कह दें।

वो सप्तवर्णी सतरंगी किरणों का है स्वामी।
वो अन्तर्यामी”दीपक” है श्री,अंनतआयामी।।

वास्तव में मंदिर का जीवन मे बहुत ज़्यादा महत्व है।सामाजिक रूप में मंदिर एक वो स्थान हैं जहाँ से आध्यात्मिक गतिविधियों को नियंत्रित किया जा सकता है।
सामूहिक रूप से किसी धर्म सन्देश को अथवा उपदेश और प्रवचन को एक साथ समाज मे फैलाने का अतिउत्तम और तीव्र माध्यम एवं स्थान है।

हिंदू धर्म में मंदिरों का उपयोग देव पूजा ,अर्चना ,प्रार्थना ,वंदना, यज्ञ आदि करने का एक पवित्र स्थान तो है ही।इसके इतर ये समाज मे एकजुटता बनाये रखने का और समाज के सभी वर्ण के व्यक्तियों को समान अधिकार दिलाने तथा देने का माध्यम भी है।

उदाहारण के तौर पर अगर हम कहें कि भारत मे बहुत निर्धन लोग भी रहते हैं जिनको कभी कभी अन्न के दर्शन भी नहीं हो पाते इसी स्थिति को ध्यान में रखकर हमारे ऋषि मुनियों और पूर्वजों ने भोग एवम अनेक अवसर पर भंडारों की परिकल्पना की और इसे रीति रिवाजों में परिवर्तित किया। जो आज भी प्रचलित है और समस्त भारत या विश्व मे देखा जा सकता है।

आचार्य दीपक शर्मा “दुबई वाले”

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