वास्तु में भूमि चयन के सिद्धांत एवं महत्व @ दीपक शर्मा
October 5, 2021
वास्तु
में
भूमि चयन के सिद्धांत एवं महत्व @ दीपक शर्मा
परम पिता परमेश्वर जगतगुरु भगवान् ब्रह्मा जी की स्तुति और चरण वन्दना करते हुए।
माँ सरस्वती को कोटि कोटि प्रणाम एवं अपने समस्त गुरुजनो के चरणों में शीश नवाते हुए मैं “दीपक शर्मा ” वास्तु में भूमि चयन के सिद्धांत एवं महत्व “को परिभाषित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। समस्त आचार्यों की कृपा दृष्टि की कामना करता हूँ।।
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारूढ़ाये धीमहि।
तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्।।
वास्तु सम्मत भूमि और भवन निर्माण वहाँ रहने वाले समस्त निवासियों को सुख एवं प्रसन्नता प्रदान करती है। वास्तु अगर सही मायनों में देखा जाए तो पंचमहाभूत अर्थात पंचतत्वों का पूर्ण अनुपातिक संतुलन है जो यदि शास्त्र पूरक है तो भवन में धनात्मक ऊर्जाओं का आवागमन रहेगा।
इसे आसान शब्दों में कहें तो घर में धनात्मक ऊर्जा का संचार होगा. भू स्वामी और परिवार को सुख शान्ति का अनुभव होगा।
शास्त्र और नियम के अनुसार चयनित भूमि और बनाया गया भवन निरोगी, प्रसन्न ,धनवान, आयुष्मान,सुरक्षित बनाता हैं। मानव की आंतरिक ऊर्जा और दैवीय या अंतरिक्ष ऊर्जा या बाह्य धनात्मक ऊर्जा का समन्वय हो जाता है।
वास्तुशास्त्र में माना गया है कि भवन निर्माण से पूर्व उचित भूमि का चयन कर उस भूमि खंड का वास्तु परीक्षण किया जाना चाहिए। ऐसा करने से भवन निर्माण के बाद आने वाली समस्याओं से बचा जा सकता है।
वास्तु शास्त्र में मिट्टी की जाँच करने हेतु कुछ विधि एवं सिद्धांत हमारे मनीषियों और वास्तु आचार्यों ने बताया है जो आज के वैज्ञानिक युग में पूर्णतः सत्य साबित हो रही हैं ।
हमे वास्तु का निर्माण वास्तु के नियम से ही करने चाहिए।भूमि की पहचान के लिए हमारे आचार्यों में हमे कुछ नियम बताएं हैं।
वास्तु का नियम कहता है कि व्यक्ति को क्रमशः से वास्तु सम्मत देश,नगर,ग्राम, स्थान का चयन फिर स्वामी की राशि और शास्त्र विधि अनुसार भूमि का चयन, भूमि की दिशा की गणना ,तत्पश्चात शुभ मुहूर्त के अनुसार खात ,नींव ,चौसठ पद के अनुसार कक्ष दिशा,संख्या एवं भवन निर्माण ,मुहूर्त के अनुसार द्वार स्थापना तत्पश्चात आचार्यों के मार्गदर्शन में अतिशुभ मुहूर्त में गृह पूजन एवं गृह प्रवेश करना चाहिए।
यदि भूमि में कोई दोष नहीं है और सभी प्रकार से शुभ है तभी भवन निर्माण करना चाहिए अन्यथा उस भूमि को त्याग देना चाहिये जो वास्तु के अनुसार न हो।
वास्तुशास्त्र का अर्थ पृथ्वी पर समस्त सजीव प्राणियों आर्थिक मानसिक शारीरिक पारिवारिक सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने हेतु सिद्धांत बताना या मार्गदर्शन करना।
भूरेव मुख्यं वास्तु तत्र जातानि यानिहि।
प्रसादादीनि वस्तूनि वस्तुत्वात वास्तुसंश्रयात।।
वास्तुशास्त्र को भगवान् शंकर की कृपा से पाराशर ी ने प्राप्त किया फिर महर्षि पाराशर जी ने वास्तुशास्त्र को बृहद्रथ जी को सिखाया और बृहद्रथ ने विश्वकर्मा जी को और फिर इस शास्त्र को विश्वकर्मा जी ने जगत और मानव के कल्याण के हेतु विभिन्न शास्त्रों एवं भेदों के ज़रिये मनुष्यों को सिखाया।
वास्तु में सबसे पहला कदम स्थान ,नगर, ग्राम आदि का चयन करना है इसके लिए वास्तु शास्त्र में राशि, अंक ज्योतिष एवं काँकड़ी विचार किया जाता है। किसी भी स्थान का चयन वर्ग ज्ञान एवं वर्गाष्टक चक्र से किया जाता है।
कुल आठ प्रकार के वर्ग होते हैं जिनके अन्तर्गत नाम के अक्षर एवं दिशा निर्धारित हैं।
१. अ वर्ग – अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अ:
२. क वर्ग – क ख ग घ ड़.
३. च वर्ग – च छ ज झ ञ्
४. ट वर्ग – ट ठ ड ढ़ ण
५. त वर्ग- त थ द ध न
६. प वर्ग – प फ ब भ म
७. य वर्ग – य र ल व
८. श वर्ग – श स ष ल
वर्ग के अनुसार दिशा
१. अ वर्ग – पूर्व
२. क वर्ग – आग्नेय (पूर्व दक्षिण )
३. च वर्ग – दक्षिण
४. ट वर्ग – नैऋत्य (दक्षिण पश्चिम )
५. त वर्ग- पश्चिम
६. प वर्ग – वायव्य (पश्चिम उत्तर)
७. य वर्ग – उत्तर
८. श वर्ग – ईशान (उत्तर पूर्व )
वर्ग के अनुसार देवता
१. अ वर्ग – गरुण
२. क वर्ग – विलाब
३. च वर्ग – सिंह
४. ट वर्ग – स्वान
५. त वर्ग- सर्प
६. प वर्ग – मूषक
७. य वर्ग – मृग
८. श वर्ग – मेष
काकड़ी विचार विधि
जिस व्यक्ति को निवास करना है और जिस जगह निवास करना है। उन दोनों के वर्ग का आँकलन करते है इसी विधि को काकड़ी विचार विधि कहते हैं।
व्यक्ति एवं स्थान के नाम का प्रथम अक्षर से वर्ग देखते हैं। ५वाँ वर्ग त्याज्य है इसे नहीं लेना है।
स्ववर्गं द्विगुणं कृत्वा परवर्गेण योजयेत।
अष्टभिस्तु हरेद्वागं योSधिकः स ऋणी भवेत।।
अपने अपने वर्ग को दुगना करके दूसरे की वर्ग संख्या को जोड़कर उसमें आठ से भाग देने पर जो भी शेष रहे उसे काकिणी कहते हैं। दोनों की काकिनियों में जिसकी संख्या अधिक हो वह ऋणी होता है।
राशि भेद के अनुसार ग्रामवास का नियम
राम दैवज्ञ जी ने राशि भेद के अनुसार ग्रामवास का नियम बताया है। राम दैवज्ञ जी के अनुसार-
वृष ,मिथुन ,सिंह,मकर राशि वालों को ग्राम के मध्य में निवास नहीं करना चाहिये।
पूर्व की दिशा में वृश्चिक राशि वालों को निवास नहीं करना चाहिये।
आग्नेय की दिशा में मीन राशि वालों को निवास नहीं करना चाहिये।
दक्षिण की दिशा कन्या राशि वालों को निवास नहीं करना चाहिये।
नैऋत्य की दिशा में कर्क राशि वालों को निवास नहीं करना चाहिये।
पश्चिम की दिशा में धनु राशि वालों को निवास नहीं करना चाहिये।
वायव्य की दिशा में तुला राशि वालों को निवास नहीं करना चाहिये।
उत्तर की दिशा में मेष राशि वालों को निवास नहीं करना चाहिये।
ईशान की दिशा में कुम्भ राशि वालों को निवास नहीं करना चाहिये।
#नारायण भट्ट जी के अनुसार स्वनाम राशि (अपने नाम की राशि ) से दूसरी ,पाँचवी , नवमी ,दंसवी ,ग्यारहवीं राशि वाले ग्राम में निवास शुभ होता है। अन्य राशि वालो को उस ग्राम में निवास नहीं करना चाहिए।
किस प्रकार की भूमि अति उत्तम है
विश्वकर्मा जी में देव दुर्लभ भूमि के आकार के लक्षण बताये हैं जो सही अर्थों में आज के युग में वैज्ञानिक है।
चतुरस्त्रा द्वीप्याकारां सिंहोक्षेश्वभरूपणीम।
वृत्तस्य भद्रपीठन्च त्रिशूलं लिङ्गसन्निभम ।।
जो भूमि पूरी तरह से चौकौर हो तथा व्याघ्र के आकार की हो या सिंह के आकर की हो जो भूमि साँड़ के आकार की हो अथवा अश्व के आकार की हो। जो भूमि हाथी के आकार की हो।
जो भूमि चौकौर चौकी के आकार की हो आ जिस भूमि का आकर त्रिशूल की तरह हो।
जिस भूमि का आकार शिवलिंग जैसा हो। वो सब देव दुर्लभ भूमि की श्रेणी में आती हैं।
“प्रासादध्वज कुम्भादि देवानामपि दुर्लभाम ”
मंदिर के ध्वज और घड़े के आकार वाली भूमि तो देवताओं के लिए भी दुर्लभ होती है इस प्रकार की भूमि में निवास करना अति शुभकारी एवं भाग्यकारी होता है।
1) जो भूमि चौकोर होती है उसमे वास्तु करने से प्रचुर मात्रा में अनाजों की धन धान्य की प्राप्ति होती है।
2) जो भूमि आयताकार होती है अर्थात जिसकी लम्बाई और चौड़ाई आमने सामने की दो भुजाएं सामान अनुपात की होती हैं। वो भूमि शुभदायक होती है। इसमें भू स्वामी को धन लाभ होता है।
3) जो भूमि सम षट्भुजाकार के होती है वो भूमि शुभ एवं उन्नति दायक होती है। इसमें भू स्वामी को लाभ होता है।
4) जो भूमि वृत्ताकार होती है अर्थात जिसकी आकृति गोल हो । वो भूमि व्यवसाय के लिए शुभ होती है। और शुभ भी तभी होगी जब उसमे गोल भवन का ही निर्माण हो।
5) जो भूमि सम अष्टभुजाकार के होती है वो भूमि शुभ एवं उन्नति दायक ,सुख समृद्धि दायक होती है। इसमें भू स्वामी को सभी प्रकार का लाभ होता है।
6) जो भूमि त्रिभुज के आकार की होती है अर्थत जो त्रिभुजाकार होती है उस भूमि पर वास्तु करने से राजपक्ष या अधिकारीयों से दंड मिलता है। ।
7) जो भूमि गौमुख इस वृषभाकार होती है वो भूमि निवास के लिए शुभ एवं उन्नति दायक ,सुख समृद्धि दायक होती है तथा व्यवसाय के लिए अशुभ एवं कष्टकारी होती है। इस प्रकार की भूमि में. पशु लाभ होता है तथा वाहनों का सुख मिलता है।
मार्ग
8) जो भूमि सिंहाकार या सिंहमुखी होती है वो भूमि व्यवसाय के लिए शुभ एवं उन्नति दायक ,सुख समृद्धि दायक होती है तथा निवास के लिए अशुभ एवं कष्टकारी होती है। इस प्रकार की भूमि में गुणी पुत्र लाभ होता है ।
मार्ग
9) जो भूमि हाथी समान आकार वाली होती है वो भूमि धन एवं उन्नति दायक होती है। इसमें भू स्वामी को लाभ होता है।
10) जो भूमि त्रिशूल के आकार वाली होती है वो भूमि वीरों को साहीसियों को जन्म देती है। ये भूमि धन एवं सुखदायक होती है।
11) जो भूमि लिँग के आकार वाली होती है वो भूमि सन्यासी बनाती है जो शैवों और साधुओं ,उपासकों के लिए उपयुक्त है।
12) जो भूमि प्रासाद और ध्वज के आकार वाली होती है वो प्रतिष्ठता ,सम्मान ,यश,कीर्ति ,पद में उन्नति दिलाती और कराती है।
13) जो भूमि भद्रपीठ के आकार की और गोल आकार वाली होती है वो आजीविका में वृद्धि करवाती है और आजीविका दिलवाती है।
14) जो भूमि घड़े या कुम्भ के आकर की। वो भूमि धन देने वाली और सुमंगल ककरने वाली होती है। इसमें भू स्वामी को धन लाभ होता है।
वर्ण के अनुसार भूमि को पहचानना (वर्णानुसार भूमि लक्षण )
शुभस्य शुभदा ज्ञेया दशा पापस्य चाधमा।
शुक्ला मृत्स्ना च या भूमि ब्राह्मणी सा प्रकीर्तिता।।
क्षत्रिया रक्तमृत्स्ना च हरिद्वैश्या उदाह्रता
कृष्णा भूमिभवेच्छूद्रा चतुर्धा परिकीर्तिता।।
सफ़ेद वर्ण की मिट्टी वाली भूमि ब्राह्मणी वर्ण की,रक्त रंग (लाल) वर्ण की क्षत्रिया वर्ण की ,हरित (पीली )वर्ण की वैश्य वर्ण की तथा कृष्ण (काली)वर्ण की मिटटी वाली भूमि शूद्रा वर्ण की भूमि कही जाती है।
खरपतवार के अनुसार भूमि को पहचानना (तृण अनुसार भूमि लक्षण )
ब्राह्मणी भूः कुशोपेता क्षत्रिया स्याच्छराकुला।
कुशकाशाकुला वैश्या शूद्रा सर्वतृणाकुला।।
कुशा युक्त भूमि ब्राह्मणी भूमि ,शर (मूँज)जहाँ उग रहे हों उस भूमि को क्षत्रिय भूमि ,कुश काश मिश्रित से युक्त भूमि वैश्य भूमि तथा सभी प्रकार के तृण से युक्त भूमि शूद्र प्रकार भूमि
कही जाती है।
गंध के अनुसार भूमि को पहचानना ( गंध के अनुसार भूमि लक्षण )
सुगंधा ब्राह्मणी भूमि रक्तगंधा तु क्षत्रिया।
मधुगंधा भवेद्वैश्या मधगंधा च शुद्रिका।।
जिस भूमि से सुगंध आती हो जो भूमि महकती हो वो भूमि ब्राह्मणी भूमि होती है। जिस भूमि से रक्त जैसी गंध आती हो वो भूमि क्षत्रिय भूमि कही जाती है।
जिस भूमि की मिट्टी से शहद अर्थात मधु जैसी महक आती हो वो भूमि वैश्य प्रकार भूमि तथा जिस भूमि की मिट्टी से शराब या मद्य की गंध आती हो तो उस भूमि को शूद्र प्रकृति की भूमि कहा जाता है।
रस के अनुसार भूमि को पहचानना (रस के अनुसार भूमि लक्षण )
अमला भूमिभर्वेद्वैश्या तिक्ता शूद्रा प्रकीर्तिता।
मधुरा ब्राह्मणी भूमि कषाया क्षत्रिया मता।।
जिस भूमि को चखने से मीठेपन का रास आये तो वो भूमि ब्राह्मणी भूमि कही जाती है। जिस भूमि कषैले रस की अनुभूति होती हो वो भूमि क्षत्रिय भूमि कही जाती है।
जिस भूमि से अम्ल की तरह रस लगता है वो भूमि वैश्य प्रकार भूमि तथा जिस भूमि की मिट्टी का स्वाद तिक्त (तीता )हो उस भूमि को शूद्र प्रकृति की भूमि कहते हैं।
वर्ण के अनुसार भूमि का फल
ब्राह्मणी सर्वसुखदा क्षत्रिया राज्यदा भवेत।
धनधान्यकरी वैश्य शूद्रा तु निन्दिता स्मृता।।
जो ब्राह्मणी भूमि होती है वो सभी प्रकार के सुख देने वाली होती है। क्षत्रिय भूमि राजा जैसे सुख, राज्य सुख देने वाली होती है।
धन धान्य से पूर्ण करने वाली भूमि को वैश्य भूमि कहते हैं। शूद्र भूमि को त्याज्य ही मानना चाहिए।
आचार्य वशिष्ट जी ने भी भूमि लक्षण का मार्गदर्शन करते हुए जताया की ब्राह्मणों को सफेद ,क्षत्रियों को लाल ,वैश्य वर्ण को पीली तथा शूद्रों को काली रंग की भूमि का प्रयोग शुभकारी होता है। इसके अलावा अन्य वर्णो को मिश्रित वर्ण की भूमि का प्रयोग करना चाहिए।
भूमि का दिशाओ में ढलान
भूमि का ढलान किस दिशा में हो ये भी वास्तु में अति महत्त्वपूर्ण बिंदू है। इसका हमें अति संवेदन रूप से ध्यान रखना चाहिए।
१. पूर्व दिशा की ओर अगर भूमि का ढलान होता है तो धन प्राप्ति होती है।
२. अग्निकोण में भूमि का ढलान नहीं होना चाहिए इसके स्वामी को दाह,शोक का दुरफल मिलता है।
३. दक्षिण दिशा में अगर भूमि का ढलान हो तो भू स्वामी की मृत्यु हो सकती है।
४. नैऋत्य की दिशा में भूमि का ढलान धन की हानि और नाश कराता है।
५. पश्चिम दिशा में भूमि का ढलान होने से पुत्रों की हानि एवं अपयश की प्राप्ति होती है।
६. वायव्य दिशा में भूमि का ढलान होने से भू स्वामी परदेश में निवास करता है।वो मानसिक रोगों से ग्रसित रहता है।
७. उत्तर की दिशा में भूमि का अगर ढलान है तो धन की प्राप्ति होती है।
८. ईशान दिशा में भूमि का ढलान हो तो विद्या का लाभ होता है।
वास्तु शास्त्र की सबसे अच्छी बात यह है की इसको अनेको आचार्यों ने अपने शास्त्रों से और विचार एवं मतों से इसे सुशोभित करती है। परन्तु इस मत पर शब्दों के चयन के अलावा सका एक ही मत है। मेरा ऐसा मेरा मानना है।
वर्ण के अनुसार भूमि के झुकाव का फल
आचार्य नारायण भट्ट जी ने भूमि के झुकाव पर अपने विचार रखे और वर्ण के अनुसार उनका फल बताया।
सौम्यादिपल्वभूतले विरचयेद्विद प्रदिकोSग्र्योSखिले।
नान्येषां नियमोSथ यत्र निखिला कुर्युर्ग्रह्म ह्रस्थिरम।।
ब्राह्मण को उत्तर दिशा की ,क्षत्रिय को पूर्व दिशा की ,वैश्य को दक्षिण दिशा की और ढाल या झुकाव वाली भूमि शुभ होती है। ब्राह्मण को सभी प्रकार के ढाल वाली भूमि शुभ होती है। शेष बचे वर्णो के लिए कोई नियम नहीं हैं।
वास्तु में भूमि प्लवत्व के फल
पूर्व की और ढालवाली वाली भूमि धन धान्य की वृद्धि करने वाली ,पश्चिम की ओर ढाल वाली भूमि अर्थनाशाक और दक्षिण की ओर ढालवाली भूमि गृहपति मृत्यु का कारण होती है।
जो भूमि पश्चिम में ऊँची और पूर्व में नीची हो उसको “यमविथी ” कहते हैं। जो भूमि पूर्व में ऊँची और पश्चिम में नीची हो उसको “जलवीथी ” कहते हैं।
उत्तर की तरफ ऊँची एवं दक्षिण की तरफ से नीची भूमि को यमवीथी कहते हैं।
दक्षिण की ओर से ऊँची एवं उत्तर की ओर से नीची भूमि को गजवीथी कहते हैं।
ईशान कोण की तरफ से ऊँची और नैऋत्य कोण की तरफ से नीची भूमि को भूतवीथी परिभाषित करते हैं।
आग्नेय कोण की ओर ऊँची और वायव्य कोण की तरफ से नीची भूमि को नागवीथी भूमि कहते हैं।
वायव्य कोण की तरफ से ऊँची तथा आग्नेय कोण की ओर से नीची भूमि वैश्वानरी कहलाती है।
नैऋत्य कोण की ओर से ऊँची एवं ईशान कोण से नीची भूमि को धनवीथी भूमि कहते हैं।
अग्निकोण से मध्य में ऊँची ओर पश्चिम तथा वायव्य के कोण के मध्य में नीची भूमि को पितामह वास्तु कहते हैं और ऐसी भूमि में निवास सुखद होता है।
अग्नि कोण और पश्चिम के बीच में ऊँची तथा वायव्य कोण तथा उत्तर के बीच में नीची भूमि सुपथ वास्तु कहते हैं। सुपथ वास्तु सभी प्रकार के कार्यों के लिए हितकारी होती है।
उत्तर और ईशान कोण के बीच में नीची नैऋत्य और दक्षिण दिशा के बीच में ऊँची भूमि को दीर्घायु वास्तु कहते हैं। यह भूमि उत्तम एवं वंश में वृद्धि करने वाली होती हैं।
पूर्व और आग्नेय कोण के बीच में नीची तथा वायव्य और पश्चिम के बीच में जो भूमि ऊँची होती है उसे अपथ वास्तु कहते हैं। ये वास्तु लड़ाई झगड़ा कराने वाली होती है।
ईशान कोण और पूर्व के बीच में नीची तथा नैऋत्य और पश्चिम के बीच में से ऊँची भूमि को पुण्यक वास्तु कहते हैं। यह भूमि ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य वर्ण के लिए शुभकारक होती है।
आग्नेय कोण एवं दक्षिण कोण के बीच में नीची तथा वायव्य और उत्तर के बीच में जो भूमि ऊँची होती है उसे रोगकर वास्तु कहते हैं। ये भूमि रोग देती है।
नैऋत्य कोण एवं दक्षिण कोण के बीच में नीची तथा ईशान और उत्तर के बीच में जो भूमि ऊँची होती है उसे अर्गल वास्तु कहते हैं। ये भूमि ब्रह्म हत्या जैसे महापापों का नाश करती है।
ईशान और पूर्व के बीच में जो भूमि ऊँची तथा नैऋत्य कोण के बीच में नीची जो भूमि ऊँची होती है उसे श्मशान वास्तु कहते हैं। ये भूमि कुल का नाश करने वाली होती है।
आग्नेय कोण से नीची तथा नैऋत्य कोण ,ईशान एवं वायव्य कोण के बीच में ऊँची भूमि को शोक वास्तु कहते हैं। ये भूमि सम्पत्ति नाशक,मृत्यु कारक होती है।
ईशान कोण अग्नि कोण तथा पश्चिम में ऊँची और नैऋत्य कोण में नीची अश्वमुख वास्तु कहते है। यह भूमि निवासकर्ता को दरिद्र बना देती हैं।
नैऋत्य कोण ,आग्नेय और ईशान कोण में ऊँची तथा पूर्व ,वायव्य कोण में नीची भूमि को ब्रह्मघ्न वास्तु कहते हैं। ये भूमि खेती करने योग्य होती है। इसमें निवास नहीं करना चाहिए।
अग्नि कोण में ऊँची और नैऋत्य कोण ,ईशान कोण,वायव्य कोण में नीची भूमि को स्थावर वास्तु कहते हैं। ये भूमि सभी प्रकार के कार्यों के लिए शुभ होती है।
नैऋत्य कोण में ऊँची तथा आग्नेय और ईशान कोण ,वायव्य कोण में नीची भूमि को स्थण्डिल वास्तु कहते हैं।इस प्रकार के वास्तु में स्थिरता होती है एवं स्थायित्व मिलता है। अतः शुभ है।
ईशान कोण में ऊँची और आग्नेय ,नैऋत्य,वायव्य कोण में नीची भूमि को शाण्डुल वास्तु कहते हैं। ये भूमि अहितकारी तथा सर्वथा निवास के अयोग्य है।
आग्नेय , नैऋत्य,ईशान कोण में ऊँची तथा वायव्य कोण में नीची भूमि को सुस्थान वास्तु कहते हैं।
पूर्व में नीची और नैऋत्य कोण ,वायव्य कोण एवं पश्चिम में नीची भूमि को सुतल वास्तु कहते हैं।ये भूमि क्षत्रियों के लिए हितकर होती है।
उत्तर ,ईशान कोण ,वायव्य कोण में ऊँची तथा दक्षिण में नीची भूमि को चर वास्तु कहते हैं। ये भूमि वैश्यों के लिए शुभकर लाभदायी होती है।
पश्चिम में नीची ,ईशान कोण ,पूर्व आग्नेय कोण में ऊँची भूमि को अश्वमुख वास्तु कहते हैं। ये भूमि शूद्रों के निवास करने वाली होती है।
वर्ण और वर्ग के लिए शुभ लक्षण
जिस भूमि पर जल का बहाव उत्तर दिशा की ओर होता है। कुश उगे होते हैं तथा जिस भूमि से घी जैसी सुगंध आती है। जिस भूमि मिट्टी का रंग सफ़ेद हो वह भूमि सर्वदा ब्राह्मणो के निवास योग्य होती है।
जिस भूमि पर जल का बहाव पूर्व की दिशा की ओर होता है। कुश उगे होते हैं तथा जिस भूमि रक्त जैसी गंध आती है। जिस भूमि मिट्टी का रंग लाल हो। वह भूमि सर्वदा क्षत्रियों के निवास योग्य होती है।
जिस भूमि पर जल का बहाव दक्षिण की दिशा की ओर होता है। कुश उगे होते हैं तथा जिस भूमि अन्न जैसी गंध आती है। जिस भूमि मिट्टी का रंग पीला होता हो। वह भूमि सर्वदा वैश्यों के लिए शुभ होती है।
जिस भूमि पर जल का बहाव पश्चिम की दिशा की ओर होता है। दूब उगी होती हो तथा जिस भूमि से मद्य जैसी गंध आती है। जिस भूमि मिट्टी का रंग काला होता हो। वह भूमि सर्वदा शूद्रों के लिए शुभ होती है।
भूमि की दिशाओं में ऊँचाई के लक्षण तथा फल
वास्तु शास्त्र के मतानुसार दिशाओ का भूमि की ऊँचाई का वास्तु पर बहुत ही ज़्यादा प्रभाव पड़ता है। हमे भूमि में ऊँची हो और फल दायिनी हो इसका आंकलन अवश्य कर लेना चाहिए।
1.पूर्व दिशा में ऊँची भूमि पुत्रों का नाश करती है अर्थात पुत्र नाशक होती है।
2. आग्नेय कोण में ऊँची भूमि धन को दिलाती है अर्थात धनदायिनी होती है।
3. आग्नेय कोण में नीची भूमि धन नाश करती है अर्थात धननाशक होती है।
4. दक्षिण दिशा में ऊँची भूमि रोग नाश करती है अर्थात स्वास्थ्यवर्धक होती है।
5. नैऋत्य कोण में ऊँची भूमि धन प्रदान करती है अर्थात लक्ष्मीदायिनी होती है।
6. पश्चिम दिशा में ऊँची भूमि पुत्रों को दिलाती है अर्थात पुत्रदायिनी होती है।
7. वायव्य कोण में ऊँची भूमि द्रव्य हानि कराती है अर्थात द्रव्यनाशिनी होती है।
8. उत्तर दिशा में ऊँची भूमि रोग हानि कराती है अर्थात आरोग्य रखती है।
9. ईशान कोण में ऊँची भूमि सुखों की हानि कराती है ,घर के वातावरण को दूषित करती है अर्थात अति कलेश कारक रखती है।
वास्तु में भूमि का परीक्षण एवं फल – सरल विधि
1) भूमि का परीक्षण करने की अनेक विधियां हैं। एक प्रचलित वास्तु विधि है कि जिस भूमि पर निर्माण करना हो, उस स्थान पर भू स्वामी की कुहनी से मध्यमा अंगुली तक की लम्बाई नापकर उसी नाप का गहरा, लम्बा व चौड़ा गड्ढा कर लें एवं निकली हुई मिट्टी से गड्ढे को पुनः भर दें।
यदि मिट्टी कम पड़े तो हानि, बराबर रहे तो न हानि न लाभ तथा मिट्टी शेष बच जाए तो सुख-सौभाग्य प्रदान करने वाली होती है।
अगर भू स्वामी किसी कारण बस उस समय उपस्ठित नहीं है तो ये कार्य उस व्यक्ति की पत्नी भी कर सकती है।
यदि धर्मपत्नी भी उपस्थित नहीं है तो ये हाथ का माप उस व्यक्ति द्वारा नियुक्त आचार्य भी कर सकते हैं।
2) आचार्य नारायण भट्ट जी के नियम अनुसार गौधूलि सूर्यास्त के समय भू स्वामी की कुहनी से मध्यमा अंगुली तक की लम्बाई नापकर उसी नाप का गहरा, लम्बा व चौड़ा नाप का गड्ढा खोदकर उसे पानी से पूरा भर दें। सुबह तक यदि पानी शेष है तो भूमि शुभता लिए हुए है। यदि पानी नहीं शेष हैं लेकिन मिट्टी गीली है तो मध्यम फल दायिनी हैं तथा यदि भूमि सारा पानी सोख ले और सूखकर दरारें पड़ जाए तो भवन निर्माण के लिए इस भूमि को अशुभ ही समझना चाहिए है।
3) नगर,ग्राम या बस्ती बसाने के लिए एक सर्वमान्य भूमि परीक्षण की विधि आचार्य बताई है. इसमें एक कच्ची मिटटी का दीप जलने वाला सकोरा लें। उसे एक फुट का गड्डा बनाकर उसे गाय के गोबर या मिट्टी से लीपकर उसमे ताली सहित मिट्टी का सकोरा दबा दें। अब उस सकोरे को लबालब ऊपरी सतह तक घी से भर दें। उसमे चार रुई की बत्तियाँ ,चारों दिशाओं में डुबोकर प्रज्जल्वित करें। यदि चारों दिशाओं की बत्तियाँ घी की समाप्ति तक जलती रहें तो उस भूमि को वास्तु योग समझना चाहिए।
इस भूमि में पर्व दिशा में ब्राह्मण, दक्षिण दिशा में क्षत्रिय ,पष्चिम दिशा में वैश्य और उत्तर दिशा में शूद्रों को निवास करने चाहिए।
4) हमारे शास्त्रों में बहुत ही अच्छी विधि बताई गयीं हैं जो अत्यंत प्रामाणिक एवं सरल हैं। एक और नियम हैं कि भू स्वामी की कुहनी से मध्यमा अंगुली तक की लम्बाई नापकर उसी नाप का गहरा, लम्बा व चौड़ा गड्ढे को खोदें और उसे ऊपर तक जल से भर दें फिर सौ कदम सामान्य गति से चलकर जाए और वापस आएं ।
यदि गड्ढा पूरा भरा हो तो भूमि का गुण उत्तम माना जाए। यदि जल चौथाई कम हो जाये तो भूमि का फल मध्यम समझा जाए। यदि जल आधा या उससे कम रह जाए तो ऐसी भूमि वास्तु की दृष्टि में अच्छी नहीं होती। इस निर्माण न करें।
5) भूमि परीक्षण परीक्षण अनाज के बीज बो कर भी किया जाता है। यदि बीज समय पर अंकुरित हो जाए तो ऐसी भूमि पर निर्माण करना वास्तु में उचित माना जाता है।
हल से भूमि को जोत दें। उसमे सभी प्रकार के बीजों को बो दें और ३ दिन , पाँच दिन या सात दिन तक की प्रतीक्षा करें। यदि उक्त बोये हुए बीज तीन रात्रियों के उपरान्त उग आएं हैं तो यह भूमि वास्तु के लिए अति उत्तम है। यदि बीजों को अंकुरित और उगने में पाँच दिन का समय लगता है तो भूमि मध्यम फलदायिनी है। यदि बीजों को उगने में सात दिन का समय लगता है तो वह भूमि निंम्न कोटि के फल देने वाली होती है।
6) तिल अथवा अलसी या सरसों अथवा अन्य धान्यों को कुदाल आदि से जोतकर बो दें। यदि सर्व धान्यादि न उगें तो उस भूमि को वास्तु हेतु त्याग देना चाहिए। इस प्रकार का भूमि परीक्षण कृषि योग्य भूमि के लिए ही मान्य है। इस प्रकार की भूमि में उद्योग नहीं लगाने चाहिए या व्यापार नहीं करना चाहिए।
7) जिस जगह पर विश्राम करने से व्यक्ति के मन को शांति अनुभव होती है, अच्छे विचार आते हैं तो वह भूमि भवन निर्माण के योग्य होती है।
8) जिस भूमि में देवफल उगते हो। तथा जहाँ पर शुभ पक्षिओं का कलरव या आवागमन होता हो। जिस भूमि में बालक निश्चिन्त होकर किसी भी भय के बिना खेलते या घुमते हों। जिस भूमि गाय चारा चरती हों। इस प्रकार की भूमि भी वास्तु के लिए चुनी जा सकती है।
9) वास्तु शास्त्र में कहा गया है कि गड्ढे में पानी स्थिर रहे तो घर में स्थायित्व, बाएं से दाएं घूमता दिखे तो सुख, दाएं से बाएं घूमे तो अशुभ रहता है।
10) भूमि परीक्षण के लिए चुनी हुई भूमि से एक मुठ्ठी मिट्टी को लेकर आकाश की और उछालें। यदि वो मिट्टी एकदम नीचे की और आ जाए तो भूमि को अधोगति वाली समझना चाहिए। इसका अर्थ हुआ कि इस भूमि से पतन होगा।
यदि मिट्टी हवा में ही फ़ैल जाए तो भूमि मिला झुला अर्थात मध्यम प्रकार के फल देगी।
यदि आकाश की ओर फेंकी गई मिट्टी ऊपर की ओर चली जाए तो उन्नति कराने वाली होती है इसे ऊर्ध्वगति दायिनी भूमि कहते हैं।
भूमि का शकुन जो प्राकृतिक है
यदि भूखंड की खुदाई में अस्थि ,कपाल,केश ,कोयला, फटा कपड़ा, जली हुई लकड़ी, चींटियां, सर्प, कौड़ी या दीमक ,लोहा मिले तो अनिष्टकारी होता है।
यदि भूमि की खुदाई में पत्थर मिलें तो धनलाभ देने वाली भूमि होती है।
यदि भूखंड की खुदाई में ईंट मिलें तो वृद्धिकारक भूमि होती है।
यद्दी भूमि की खुदाई में ताँबे के सिक्के ,रत्न या सोना चाँदी निकलें तो ऐसी भूमि सुख-समृद्धि देने वाली तथा यशदायक होती है।
हम अक्सर देखते हैं कि भूमि पर चलने या ठोकने पर एक आवाज़ आती है। यदि भूमि को ठोकने पर गंभीर आवाज़ सुनाई दे तो गंभीर प्रकार की भूमि पुत्रो को देने वाली होती है।
जो भूमि समतल हो वो अतिशुभ और सुख देने वाली होती है।
जो भूमि ऊँची हो वो उन्नतिशील पुत्र देने वाली होती है।
जो भूमि असम ,ऊबड़ खाबड़ हो वो शूद्रों ,चोरों डाकुओं और लुटेरों के लिए निवास के लिए बहुत उपयोगी तथा शुभ है। अन्य सभी के लिए अशुभ है।
जिस भूमि पर कुश नामक तृण हो वहाँ वास्तु करने से ब्रह्मा जी के सामान तेज वाले (ब्रह्मतेज) पुत्रों की प्राप्ति होती है।
जिस भूमि पर दूब नामक तृण हो वहाँ वास्तु करने से वीर एवं पराक्रमी पुत्रों की प्राप्ति होती है।
जिस भूमि पर फलदार वृक्ष हो और फलो से लड़ी हो वहाँ वास्तु करने से वीर एवं पराक्रमी पुत्रों की तथा धन की प्राप्ति होती है।
नदियों के कटाव वाली भूमि पर वास्तु करने से मृत पुत्र होते हैं। यसदि जीवित होंगे तो मूर्ख होंगे।
गड्डे वाली या दबी भूमि में वास्तु करने से पुत्र लम्पट और झूठ बोलने वाले होते हैं।
जिस भूमि के बीच में पत्थर हो वहाँ वास्तु करने से पुत्र दरिद्र होते हैं।
जिस भूमि का आकार टेड़ा मेडा हो वहाँ वास्तु करने से पुत्र विद्याविहीन होते हैं।
जिस भूमि में छेद और दरार हों वहाँ वास्तु करने से पुत्र एवं पशु रोगी होते हैं।
जिस भूमि में रीछ भालू रहते हैं वहाँ वास्तु करने से पशु हानि होती हैं।
जिस भूमि में अंधेरा छाया रहता हो वो भय देती है।
चौराहे पर भवन बनाने से अपयश मिलता है और क्लेश रहती है।
यूँ तो वास्तु और ज्योतिष एक ऐसी विधा हैं जिन पर लगातार कुछ न कुछ नया लिखा जा सकता है और मनन किया जा सकता है। क्योंकि इसकी एक लड़ी से नए विचारों की दूसरी लड़ी निकाल जाती है जो मन मष्तिष्क को फिर नव चिंतन और सृजन को प्रेरित करती है।
मैंने इस विषय पर जितने भी श्लोक लिए हैं वो सभ शास्त्रों में वर्णित हैं परन्तु उन्हें सरल रूप से अपने विचारों के साथ उनकी अर्थपूर्ण व्याख्या करने का प्रयास मैंने किया है।
वास्तु में यदि हमने भूमि का सटीक चयन कर लिया तो सत्य जानिये कि हमने ६० प्रतिशत वास्तु सम्मत काम कर लिया। भूमि का चयन ठीक वैसे ही है जैसे भवन निर्माण करने से पूर्व नींव रखना।
प्रभू सभी को सुख प्रदान करे।
आपका भवदीय
दीपक शर्मा
(Project Work Prepared and Done by Deepak Sharma-+91 9971693131)